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बहादुर शाह ज़फ़र की कविता में गुलामी, असहायता और टूटे हुए सपनों का मर्मस्पर्शी चित्रण | कक्षा 12 हिन्दी (आरोह भाग 2 काव्य - खण्ड)

  • BY:
     RF Tembhre
  • Updated on:
    May 02, 2025

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलमे-नापायदार में
बुलबुल को बागबाँ से न सय्याद से गिला
किस्मत में कैद लिखी थी, फ़सले बहार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिले-दागदार में
इक शाखे-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमाँ
काँटे बिछा दिए हैं दिले-लालहज़ार में
उम्र-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए दो इंतज़ार में
दिन जिंदगी के खत्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोएँगे कुंजे-मज़ार में
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कूए-यार में

परिचय

उक्त पंक्तियाँ बहादुर शाह ज़फ़र की अत्यंत प्रसिद्ध रचना है, जो भारत के अंतिम मुग़ल सम्राट थे और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख सांस्कृतिक प्रतीक बने। यह रचना उनके गहरे दुःख, निराशा, असहायता और देश की गुलामी की पीड़ा को प्रकट करती है।

यह कविता 1857 की क्रांति के असफल हो जाने और अंग्रेजों द्वारा बहादुर शाह ज़फ़र को रंगून (बर्मा) निर्वासित कर दिए जाने के बाद लिखी गई थी।

शब्दार्थ और भावार्थ

निर्वासन में विदेशी भूमि पर दिल नहीं लगता, अपना देश उजड़ चुका है, मन बेचैन है। इस नाशवान, अस्थायी संसार में किसी की भी स्थायी स्थिति नहीं होती, हर चीज़ क्षणभंगुर है। बुलबुल को न माली से शिकायत है, न शिकारी से, क्योंकि उसकी किस्मत में ही कैद लिखी थी। जब जीवन में बहार थी, तब भी मेरी किस्मत में कैद थी। अब इन अधूरी इच्छाओं को कह दो कि कहीं और जा कर बसें, क्योंकि अब दिल में उनके लिए जगह नहीं। दिल पहले ही दुखों से भरा है, इसमें अब और इच्छाओं के लिए जगह नहीं। बुलबुल एक फूल की डाली पर बैठकर खुश है, पर... मेरे दिल में, जो कभी फूलों का बाग़ था, अब केवल काँटे रह गए हैं। मैंने ऊपरवाले से लंबी उम्र की प्रार्थना की थी, लेकिन... चार दिन की ज़िंदगी में दो इच्छाओं में बीत गए, और बाकी दो इंतज़ार में — कुछ भी पूर्ण नहीं हुआ। जीवन की संध्या आ गई है, अब जीवन समाप्ति की ओर है। अब कब्र ही एकमात्र विश्रामस्थल रह गया है। ज़फ़र कितना बदनसीब है कि... उसे अपने वतन में दफ़्न होने के लिए दो गज़ ज़मीन भी नसीब नहीं हुई।

कठिन शब्दों के अर्थ

दयार = देश, नगर
आलमे-नापायदार = नाशवान संसार
बागबाँ = माली, सय्याद = शिकारी
फ़सले बहार = वसंत का मौसम
हसरतें = इच्छाएँ
दिले-दागदार = दुखों से भरा दिल
शादमाँ = आनंदित
लालहज़ार = लाल गुलाबों का बाग़
उम्र-दराज़ = लंबी उम्र
कुंजे-मज़ार = कब्र के कोने में
बदनसीब = दुर्भाग्यशाली
कूए-यार = अपने प्रिय जनों/देश की गली

सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यह कविता भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद की निराशा को दर्शाती है।
बहादुर शाह ज़फ़र, जो केवल एक नाममात्र सम्राट रह गए थे, को इस विद्रोह के बाद गिरफ्तार कर लिया गया और रंगून (अब यंगून, म्यांमार) निर्वासित कर दिया गया। वहीं वे निर्वासन में रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए।

भावनात्मक सार

यह कविता केवल ज़फ़र की निजी पीड़ा ही नहीं, बल्कि भारत की सामूहिक गुलामी और टूटे हुए सपनों का प्रतीक बन गई है। यह एक पराजित शासक का मार्मिक आख्यान है, जो देश, सम्मान और आशाओं से वंचित होकर अनजानी मिट्टी में दफ़्न हो गया।

(1857 के 150 वर्ष होने पर)
कक्षा 12 हिन्दी (आरोह भाग 2 काव्य - खण्ड)

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Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)
rfhindi.com


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